जगद्गुरु-आद्यनिम्बार्काचार्य-प्रणीत-प्रातः-स्तवराज PDF File
प्रात: स्मरामि युग-केलिरसाभिषिक्तं, वृन्दावनं सुरमणीयमुदारवृक्षम् ।
सौरीप्रवाह वृतमात्मगुणप्रकाशं, युग्मांघ्रिरेणुकणिकाञ्चितसर्वसत्त्वम् ।।१।।
भावार्थ - नित्यनिकुञ्जबिहारी युगलकिशोर श्यामाश्याम श्री राधा माधव प्रभु के परम दिव्य लीलाविहार रस से अभिषिक्त तथा कलिन्दतनया श्रीयमुना के गम्भीर धारा प्रवाह से सर्वदा समन्वित और अपने दिव्यातिदिव्य लोकोत्तर अनिर्वचनीय गुण समूह से प्रकाशमान, श्री युगल प्रिया-प्रियतम के ललित चरणारर्विन्द रज रेणु
कणिका से जहां के समस्त प्राणीमात्र परम पवित्र हैं ऐसे कल्पवृक्ष स्वरूप परम बुन्दर परम रमणीय श्रवृन्दावन धाम का मैं प्रात:काल स्मरण करता हूँ ।।१।।
प्रात: स्मरामि दधिघोषविनीतनिद्रं निद्रावसानरमणीयमुखानुरागम् ।
उन्निद्रपद्मनयनं नवनीरदाभं हृद्यानवद्यललनाञ्चितवामभागम् ।।२।।
भावार्थ - प्रात:काल व्रजवनिताओं द्वारा किये गये दधिमन्थन के गम्भीर घोष (शब्द) के श्रवण से जिनकी निद्रा खुल चुकी है, निद्रा के खुलने पर जिनके मुखारविन्द की शोभा अत्यन्त रमणीय दिखाई दे रही है, उन खिले हुए कमल के सदृश नेत्र और नवीन मेघ के समान कान्ति को धारण करने वाले निरन्तर सौन्दर्य माधुर्य लावण्यावी विविध गुण विशिष्ट परमाह्लादिनी रासेश्वरी श्रीराधिकाजी के द्वारा पूजित अर्थात शोभायमान वामाङ्ग वाले भगवान श्रीसर्वेश्वर श्यामसुन्दर प्रभु का में प्रभात समय स्मरण करता हूँ ।।२।।
प्रातर्भजामि शयनोत्थितयुग्मरूपं सर्वेश्वरं सुखकरंं रसिकेशभूपम् ।
अन्योन्यकेलिरसचिह्न सखी दृ गौधं सख्यावृतं सुरतकाममनोहरं च ।।३।।
भावार्थ - शयन से उठने पर युगल सरकार श्रीप्रियप्रियतम जो समस्त
चराचर मात्र के ईश्वर हैं तथा सबको सुख देने वाले ओर रसिक-शिरोमणि जिनके पारस्परिक रससिक्त लीला के विहार चिह्नों से सखियां रसोन्मत्त है, श्रीरंगदेवी, ललिता विशाखादि अनन्त सखियां तथा जो सुन्दर क्रीड़ाओं से मन्मथ के भी मन को हरण कर रहे हैं, ऐसे उन युग्मः रूप श्रीराधामाधव का प्रात:काल मैं भजन करता हूँ ।।३।।
प्रातर्भजे सुरतसारपयोधिचिह्नं गण्डस्थलेन नयनेन च सन्दधानौ ।
रत्याद्यशेषशुभदौ समुपेतकामौ श्रीराधिकावरपुरन्दरपुण्यपुञ्जौ ।।४।।
भावार्थ - अन्तररंग लीलाओं के मूल महोदधि चिन्हों को कपोलस्थल एवं नेत्रों द्वारा धारण करने वाले, प्रेम-भक्ति मोक्षादि अशेष शुभ पदार्थों को देने वाले एवं सम्प्राप्त नन्द-वृषभानु के पुण्यपूज भगवान श्री राधाकष्ण को मैं प्रभात में भजता हूं ।।४।।
प्रातर्धरामि हृदयेन हृदीक्षणीयं युग्मस्वरूपमनिशं सुमनोहरं च।
लावण्यधाम ललनाभिरुपेयमान मुत्थाप्यमानमनुमेयमशेषवेषैः ||५॥
भावार्थ - हृदय में ध्यान करने योग्य सौन्दर्य-माधर्य-लावण्यादि अनंत
गुणों के धाम (निधि) सहचरियों द्वारा संप्राप्य और संसेवित तथा समग्र रचनाओं द्वारा अनुमान करने योग्य, निद्रा से उठाये हुए परम सुन्दर श्रीयुगलस्वरू का मैं अपने हृदय में निरन्तर ध्यान करता हूँ ।।५।।
प्रातर्ब्रवीमि युगलावपिसोमराजौ राधामुकुन्दपशुपालसुतौ वरिष्ठौ ।
गोविन्दचन्द्रवृषभानुसुतौवरिष्ठौ सर्वेश्वरौ स्वजनपालनतत्परेशौ ।।६।।
भावार्थ - चन्द्रमा से भी अत्यन्त मनोहर अथवा चन्द्रमणियों में अति श्रेष्ठ किंवा यज्ञाङ्गभूत सोमलता विशेष अथवा अमृत स्वरूप आनन्दकन्द वरिष्ठ पशुपाल, नन्दवृषभानु के सुत सुता श्रीराधामुकुन्द गोविन्दचन्द्र और वृषभानुजा अत्यन्त मनोहर परम श्रेष्ठ सकल चराचर मात्र के नियनता अपने शरणागतजनों के पालन में तत्पर
सर्वेश्वर श्री युगल-सरकार के मङ्गलमय दिव्य नामों का मैं प्रात:काल उच्चारण करता हूँ ।।६।।
प्रातर्नमामि युगलांघ्रिसरोजकोशमष्टाङ्गयुक्तवपुषा भवदुःखदारम् ।
वृन्दावने सुविचरन्तमुदारचिह्नं लक्ष्म्या उरोजधृतकुंङ्कुमरागपुष्टम् ।।७।।
भावार्थ - नित्य दिव्य श्रीवृन्दावनधाम में नानाविध रूप से विहरण करने वाले उदार अर्थात समस्त मनोरथों को पूर्ण करने योग्य वेष-भूषा, आभूषणादि युक्त परमाह्लादिनी शक्ति श्रीराधिकाजी द्वारा निज वक्षःस्थल पर धारण किये कुंकुमरागादि से सम्पन्न अतएव विशिष्ट लालित्य समन्वित और सम्पूर्ण संसार के दुःखों को विनष्ट करने वाले श्रीयुगलकिशोर के चरणारविन्दों में अपने आठों अङ्गों से मैं प्रातःकाल नमस्कार करता हूँ ।।७।।
प्रातर्नमामि वृषभानुसुतापदाब्जं नेत्रालिभिः परिणुतं व्रजसुन्दरीणाम् ।
प्रेमातुरेण हरिणां सुविशारदेन श्रीमद्व्रजेशतनयेन सदाऽभिवन्द्यम् ।।८।।
भावार्थ - भम्रर रूपी व्रजगोपियों के नेत्र समूह जिनकी स्तुति करते हैं और परम चतुर प्रेमाकुल नन्दनन्दन श्रीहरि जिनकी सदा वन्दना करते हैं श्रीवृषभानुसता श्री राधिकाजी के उन चरण कमलों को मैं प्रातः काल नमस्कार करता हैं ।।८।।
सच्चिन्तनीयमनुमृग्यमभीष्टदोहं संसारतापशमनं चरणं महार्हम् ।
नंदात्मजस्य सततं मनसा गिरा च संसेवयामि वपुषा प्रणयेन रम्यम् ।।९।।
भावार्थ - ब्रह्मादि देवों द्वारा अन्वेषण किये जाने वाले अथवा विविध साधना दारा अन्वेषण करने योग्य, अभिमत फल को देने वाले संसार के समस्त तापों के शमन अर्थात नाश करने वाले परमोत्तम परम रमणीय सम्यक् प्रकार से ध्यान करने योग्य भगवान् श्रीश्यामसुन्दर के चरण-कमलों को मन, वाणी तथा प्रणय पूर्वक शरीर से सेवन करता हूँ ।।
प्रात: स्तवमिमं पुण्यं प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।
सर्वकालं क्रियास्तस्य सफलाः स्युः सदा ध्रुवाः ||१०||
भावार्थ-जो कोई भी मनुष्य इस परम पुण्यतम श्रीयुगल रूप के प्रात:कालीन स्तव का पाठ करेगा, उसकी समस्त क्रियायें इच्छायें सर्वदा सर्व समय में सफल होंगी। यह धुव्र अर्थात् निश्चित है ।।१०।।
जय श्री राधे !!
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