श्री हित राधा रस सुधा निधि हिंदी अर्थ सहित || श्रीहित हरिवंश जी द्वारा विरचित || Download PDF File
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प्राक्कथन
राधैवेष्टं, संप्रदयकर्ताचार्यों राधा मन्त्रदः सद्गुरुश्च,
मन्त्रो राधा यस्य सर्वात्मनैनं वन्दे राधापादपद्मप्रधानम् ॥
"अर्थात्, श्रीराधा ही जिनकी इष्ट हैं, जिनके सम्प्रदाय की मुख्य प्रवर्तक और आचार्य भी श्रीराधा ही हैं, श्रीराधा ही जिनकी मन्त्रदाता श्रेष्ठ दीक्षा गुरु हैं, राधा शब्द ही जिनकी मन्त्र है, प्रधान रूप से श्रीराधा चरणारविन्द मधुप उन श्रीहित महाप्रभु की मैं सब प्रकार से वन्दना करता उपासक जब सर्वतोभावेन उपास्य के प्रति समर्पित होता है तो उपास्य भी सब प्रकार से अपना माधुर्य और ऐश्वर्य प्रीति प्रसाद के रूप में उपासक को प्रदान करता है । सर्वाद्य रसिकजन वन्दित चरण, श्रीहित हरिवंश महाप्रभु ने अपनी आराध्या श्री वृन्दावन नाथ पट्टमहिषी स्वामिनी श्रीराधा का जो गुण गौरव, जो माधुर्य विभु, जो अपरूप स्वरूप श्रीराधा रस सुधा निधि के माध्यम से प्रकट प्रकीर्तित किया वह अपने आप में विलक्षण है। काव्य की दृष्टि से यह ग्रन्थ अद्भुत कान्ति मुक्तक-मोतियों की मञ्जूषा है, तो रसिकों के लिए तो स्वयं पूर्णानुरागरससागर सार मूर्ति श्रीराधा का वाङ्गमय स्वरूप ही है।
यह मुक्तक काव्य केवल एक रसमय काव्य ही नहीं, किन्तु हित शास्त्र भी है । श्रीराधावल्लभ सम्प्रदाय का प्रमुख सिद्धान्त युगल की सतत् सेवा है, श्री किशोरी जी का कैंकर्य है । सेवा अर्थात् जो सेव्य की इच्छा के अनुकूल एवं स्वरूप के अनुरूप हो । श्रीहित महाप्रभु की आराध्या वृन्दावनेश्वरी स्वामिनी श्रीराधा का स्वरूप सम्यक् प्रकार से समझे विना, उनके सेवा भाव में स्थिति नितांत असम्भव है । उनके उस परम दुरूह, ब्रह्मादिकों को भी दुर्लभ स्वरूप को समझना एक मात्र उनकी कृपा से ही सम्भव है एवम् श्रीराधा रस सुधा निधि, हित स्वामिनी की साक्षात् कृपा मूर्ति ही है, रसिकजनों के लिए साक्षात् प्रिया जी का प्रीति प्रसाद है, एक अधिष्ठान है । श्रीमद् सुधा निधि के माध्यम से, जहां श्रीहित महाप्रभु अपनी उपास्या के स्वरूप का वर्णन करते हैं, वहीं उपासना का मार्ग भी देते हैं, जहां उनकी नित्य केलि की दिव्यता का वर्णन करते हैं, वहीं उसका दर्शन करने के लिए जिस पूर्ण परिष्कृत भाव की आवश्यकता है, उसका भी स्पष्ट निर्देश कर देते हैं। जहां एक ओर "क्वासी राधा निगमपदवी दूरगा कुत्र चासी, कृष्णस्तस्याः कुच कमलयोरन्तरैकान्त वासः ।" कहकर अपने आराध्य युगल का उत्कर्ष गान करते हैं, उसे परम दुर्लभ बताते हैं, वहीं “यत्तन्नाम स्फुरति महिमा एष वृन्दावनस्य ॥" कहकर, श्री वृन्दावन के सहज आश्रय का निर्देश करके एक सुन्दर-सुलभ अवलम्बन भी प्रदान कर देते हैं। जहां श्रीप्रिया जी की श्री चरण रेणु कणिका को "ब्रह्मेश्वरादि सुदुरूह पदारविन्द" कह देते हैं, वहीं प्रिया जी को "निज जन परमोदार वात्सल्य सीमा" कहकर रसिकजनों के हदय को एक अद्भुत उत्साह भी प्रदान करते हैं।अस्तु, भाव तरङ्गों का एक समुच्चय यह ग्रन्थ वास्तव में सुधा निधि प्रदान करता है ।
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