google.com, pub-8916578151656686, DIRECT, f08c47fec0942fa0 श्री हित चौरासी जी PDF File | हिंदीअर्थ सहित | श्री हित हरिवंश जी द्वारा रचित

श्री हित चौरासी जी PDF File | हिंदीअर्थ सहित | श्री हित हरिवंश जी द्वारा रचित

 श्री हित चौरासी जी PDF File | हिंदीअर्थ सहित | श्री हित हरिवंश जी द्वारा रचित

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श्रीवृन्दावन रस प्राकट्यकर्ता वंशीस्वरूप रसिकाचार्य महाप्रभु श्रीहित हरिवंश चन्द्र जी महाराज द्वारा उद्गलित श्री हित चतुरासी श्री वृन्दावन रस की वाङगमय मूर्ति है। जिस रूप को वेदों ने रसो वै सः कहकर संकेत मात्र किया उसे ही उसी रस ने श्रीहित हरिवंश के रूप में प्रगट होकर जीवों पर कृपा करने के लिए वाणी का विषय बनाया जिसे हम श्रीहित चतुरासी, स्फुट वाणी एवं श्रीराधा रस सुधा निधि के रूप में जानते हैं। यह वाणी समुद्र की तरह अगाध एवं अपार है जिसे उनकी कृपा से ही समझा जा सकता है। यद्यपि कोई भी टीका मूल का स्थान नहीं ले सकती है फिर भी महापुरुषों ने कृपा करके जन सामान्य के समझने एवं रसास्वादन करने के लिए पदों में निहित भावों को यथाशक्य प्रकट करने का प्रयास किया है। श्रीहित चतुरासी की कई टीकाएं हैं जिनमें कुछ एक प्रकाशित भी हो चुकी हैं। हमारे गुरुवर्य प्रातः स्मरणीय श्रीहित कृपा मूर्ति परम भागवत स्वामी श्रीहितदास जी महाराज रसोपासना के मर्मज्ञ अधिकारी विद्वान् थे, उनके द्वारा की गई श्रीहित चतुरासी की रसिक मन रञ्जिनी" टीका हृदय स्पर्शी एवं बड़ी ही रोचक है। इसमें कई पदों के नवीन भाव भी दिये हैं। हमारे सम्प्रदाय में पहले से ही रसिकों के द्वारा दो प्रकार से मूल की टीका करने की परम्परा चली आ रही है। एक जिसमें मूल के अर्थ को सुरिक्षत रखते हुए ब्रजलीला सम्बन्धित पदों को निकुंज लीला की पृष्ठ भूमि में रखते हुए अर्थ करना और दूसरी जिसमें मूल का सिर्फ निकुंज लीला परक ही अर्थ करना । ये दोनों परम्परायें स्वस्थ रूप से अब भी विद्यमान हैं। मेरे गुरुवर्य श्री महाराज जी ने पहली परम्परा का ही अनुसरण किया है जो उनको रुचिकर था। यद्यपि प्रेमी भक्तों के आग्रह पर यह टीका सन् 1950 -हित चौरासी में की गई थी परन्तु पीछे पूज्य महाराज जी इसके प्रकाशन से विरत हो गये। यह टीका रसिक प्रेमियों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी इस भावना से हम प्रकाशित कर रहे हैं। इससे किसी भी प्रेमी उपासक को थोड़ा भी लाभ हुआ तो हम अपना प्रयास सफल मानेंगे। ग्रन्थ के प्रकाशन का श्रेय एकमात्र मेरे गुरुभ्राता संत श्री मृदुल माधवदास जी को ही जाता है। उनकी इस सेवा से वे अपने गुरु के और निकट एवं प्रिय हो गये हैं। इसी तरह पूज्य महाराज जी के अन्य ग्रन्थों को प्रकाशित करने में रुचि लेते रहे ऐसी उनसे प्रार्थना है। हम श्रीहरिनाम प्रेस के भी आभारी हैं जिन्होंने अपने सौहार्दपूर्ण व्यवहार से ग्रन्थ को शीघ्र प्रकाशित कर दिया।

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जय जय श्री राधे 




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