श्री युगल शतक Pdf File || हिन्दी अर्थ सहित
श्री युगल शतक Pdf File || हिन्दी अर्थ सहित
निकुंज -बिहारी और श्यामाश्याम प्रेमीयों को महामाधुर्यमयी नित्य लीलाओं का आस्वादन कराने हेतु निज सखी-परिकार में से किसी को भी इसधरा धाम पर भेजते हैं करुनानिधि श्रीनित्यकिसोरी करि अनुकंप कियो आदेश। आई अगवर्ति अलवेली धरि बर इच्छा विग्रह वेस।। विय-विहार-रस की प्राप्ति सखी-स्वार्थ के उदेश बिना नितान्त दुर्लभ है' श्रीनारदपुरान में स्वयं श्रीकृष्ण प्रज्ञा-पूर्वक कहते हैं कि श्रीराधा की कृपा बिना मेरी कृपा प्राप्त नहीं हो सकती है। क्योंकि किसोरी की कृपा से ही उनकी उन सखियों का संग प्राप्त होता है, जिनके अनुग्रह से ही सखी-स्वरूप प्राप्त होता है " सत्यं सायं पुनः सत्यं सत्यमेव पुनः पुनः । बिना राधा प्रसादेनमतप्रसादी न विद्यते।। श्रीराधिकाया कारुण्यात् उत्तरी संगितामियात्। तत्सखीनां च कृपया घोषिदंग मखानुबात्।।" श्रीप्रियालाल की परम अहेतुकी कृपामयी सुदृष्टि से सामक को सहज ही सुख की प्राप्ति हो जाती है। महावाणी का निज गुरुरूपा को गुरुत्व का वर्णन करते हुए कहते हैं- हिंतु सहचरी निज कृपा करि जासु तण चितव जी। नित्य विभय विलास की मुख सहन पाले सो तबै।।
चौदहवीं सदी में श्री श्रीभट्टदेव ही ऐसे आचार्य हुए, जिन्होंने सर्वप्रथम संस्कृतगर्षित निगूद्ध तत्त्व सखीभाव समन्वित रसोपासना को अपनी सरस भावनाओं द्वारा 'युगलशतक' के रूप में अभिव्यक्त किया "नमल नवेली हितुसहेली, जग हित आदि गिरा प्रगटाहों।" (श्रीगोविंदशरणदेवाचार्य) ऐसी मान्यता है कि आपके द्वारा नित्यकेलि-रस चरन से परिपूरित कई शतक काव्यों की रचना की गई थी। वे सभी शतक श्री गुरुवर्य के समक्ष प्रस्तुत किये गये, किन्तु कलिकाल में इस रस के अधिकारी न होने से उन्हें सभी शतकों को यमुना में विसर्जित करा दिया। एक युगलशतक के अतिरिक्त सभी जल में विलीन हो गये। अपने उपास्य की इच्छा जान युगतशतक को उनके प्रसाद रूप में सुरक्षित रख लिया गया। यह ग्रन्थ सदियों से रसिक भक्तो का कण्ठहार बना हुआ है जिसका निम्बार्क-सम्प्रदाय ही नहीं, अपितु सभी सम्प्रदाय के प्रेमीजन नित्य पठन-मनन व गायन करते हैं।
जय जय श्री राधे
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